Tuesday, June 17, 2008

चाह



संभव है मन को
बिछोह ही चाह थी.

अक्षर नहीं पिरोते
तुम्हारे व्यवहार को अपनी माल में. 



Saturday, April 19, 2008

किस विध इतने

तुममें कुछ नहीं टूटता क्या
जब तुम तोड़ते हो किसी को
मैं एक पाषण की करूँ वंदना अनंत
मैं एक पाषण से करूँ विनती
किसी पुष्प का खिल जाना अनुभूत होता है कभी तुमको
कही तुम किसी कांटे से बचाकर चलते हो
तुम किस विध इतने विकट
कठोर
असम्भव

Thursday, February 14, 2008

आसक्ति उतरेगी

एक दिन मेरा हो जाता
जो स्वप्न था
उस एक दिन के इंतज़ार में
बीत गयी जाने कितनी रातें.
तुम क्या जानों कि
कितना कठिन है
तुम्हारी उपेक्षाओं की परछाई तले जीना.
कैसे मैं कोसूं तुमको
कि मेरे स्वप्न भी तुम ही हो
कभी तो मेरी रूह छू जायेगी
कभी तुम समझोगे मेरा प्रेम,
आसक्ति उतरेगी